अखिल भारतीय इतिहास संकलन योजना की इतिहास पत्रिका
‘इतिहास दर्पण’ में प्रकाशित मोहयाल इतिहास पर शोध पत्र
पिछली शताब्दी के मोहयाल इतिहास लेखन में एक भारी कमी थी. किसी भी प्रकरण या घटना के लिए कोइ स्रोत या प्रमाण नहीं उद्धृत किया गया था. इसी कारण टीकाकारों ने उसे इतिहास न मानकर मोहयालों द्वारा स्वपुष्टि के लिए कल्पित कथानक इंगित किया.
ऊपर हमने “अफ़ग़ानिस्तान में हिन्दू /मोहयाल राज” लेख में यह व्याख्या की है कि विदेशी राजकाल में, उन तीन गौरवशाली शताब्दियों (700-1000 CE) के इतिहास को, जिस में मोहयाल राजाओं का शासन भी सम्मिलत था, क्यों छिपा कर रखा. इस आवरण को हटा कर अब सत्यापित मोहयाल इतिहास लिखा जा रहा है .
सब से पहले 2010 में AFGHANISTAN REVISITED : The Brahmana Hindu Shahis of Afghanistan and the Punjab (c. 840-1026 CE) पुस्तक छपी. इस में बड़ी लग्न से की गयी व्यापक शोध के परिणामस्वरूप नए तथ्यों का निरावरण किया गया है जो विश्वसनीय स्रोतों द्वारा सत्यापित हैं. नए लेखकों के लिए जो हमारे ज्ञान की सीमा को और बढ़ाना चाहें, यह पुस्तक मोहयाल इतिहास लिखने की नई परिपाटी से, और शोध किये गए नए तथ्यों के आधार-ग्रन्थ के रूप में, सदा सहायक रहे गी. इस पर भी हर्ष है कि उस के पश्चात, इतने थोड़े समय में, मोहयाल इतिहास से संबन्धित तीन और पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी है.
मोहयालों को अपने पूर्वजों के बारे में जानकारी होनी ही चाहिए. उतना ही आवश्यक यह भी है कि मोहयाल इतिहास का मूल्यांकन तथा विश्लेषण अब इतिहासकारों के चर्चा-कक्षों में हो और बुद्धिजीवियों द्वारा इस पर टिप्पणी हो .
यह भी बड़ी संतुष्टि का विषय है कि दो प्रतिष्ठित पत्रकाओं ने ‘अफ़ग़ानिस्तान रिविज़िटिड’ पुस्तक की समीक्षा की है. इस पुस्तक पर आधारित दो शोध पत्र प्रकाशित हो चुके हैं. उन में से एक Three Glorious Centuries of Hindu History: Early Indo-Islamic History (c. CE 640-1000) of Afghanistan and Norrth-West India का हिंदी रूपांतर यहां सरल भाषा में प्रस्तुत किया जा रहा है. इस में सिंध, अफ़ग़ानिस्तान और पंजाब पर छिब्बर, दत्त और वैद जातियों के पूर्वजों द्वारा शासन, उस समय के इतिहास के परिपेक्ष्य में वर्णित किया गया है.
हिन्दू इतिहास की तीन गौरवशाली शताब्दियाँ
अफ़ग़ानिस्तान और उत्तरपश्चिम भारत का
प्रारंभिक इण्डो-इस्लामिक इतिहास (लगभग 640 से 1000 ई०)
लेखक / अनुवादक : R. T. MOHAN
हम हर्ष से लेकर महमूद तक आ गए हैं और भारत के इतिहास के 350 वर्ष से अधिक का सर्वेक्षण कुछ पैराग्राफ में कर दिया है. मेरे विचार से इस लम्बी अवधि के बारे में बहुत कुछ कहा जा सकता होगा जो दिलचस्प होगा. पर मैं इस से अनभिज्ञ हूँ तो इस लिए मेरा मौन रहना ही उचित है.[1]
जवाहर नहरू को इस विचित्र अभाव का भास, जिसे “मौन क्षेत्र” कहा जा सकता है, अपने भारत इतिहास की “खोज” के दौरान हुआ. “पंजाब राज्य के बारे में जिसकी राजधानी बठिंडा (वहिंद) थी बहुत कम जानकारी उपलब्ध है.” (वैलजली हेग)[ii] “इस काल (800–1000 ई) के दौरान पंजाब में और कौनसे राजा हुए यह निर्धारित करना कठिन है.” (सी. वी. वैद्य)[iii] उस समय उत्तर-पश्चिम भारत की राजनैतिक और भौगोलिक सीमाएं (आधुनिक अफ़ग़ानिस्तान के मध्य में स्थित) हिन्दुकुश पर्वत तक थीं. इस क्षेत्र के इतिहास की ग़ज़नी साम्राज्य से पूर्व की शताब्दियों की कोई जानकारी इतिहास पुस्तकों में उपलब्ध नहीं है. यह आश्चर्यजनक है क्योंकि उस समय इस भूभाग में महत्वपूर्ण घटनाएं घट रहीं थीं. यहां हम इन महत्वपूर्ण शताब्दियों के इतिहास का पुनरावलोकन करने और इसके बारे में पिछली सहस्राब्दी में इतिहासकारों के मौन के कारण खोजने का प्रयास करेंगे.
अफ़ग़निस्तान वैदिक सभ्यता का पालना था. ऋग्वेद और महाभारत में कुछ नदियों, जनजातियों और शासकों का विशिष्ट वर्णन है जिस से पता चलता है कि पंजाब स्थित आर्यों के अफ़ग़ानिस्तान से निकट सम्बन्ध थे[iv]. अफ़ग़ानिस्तान, विशेषकर कोह हिन्दुकुश के दक्षिण का प्रदेश भी, पंजाब के समान ईरान, यूनान, शक, कुषाण तथा हूण आक्रमणों से प्रभावित हुआ. फिर भी यह भारतीय सांस्कृतिक और राजनैतिक प्रभाव क्षेत्र में था. यूनानियों को पराजित करने के पश्चात मौर्य राज्य ने अपना नियंत्रण हिन्दुकुश पर्वत, बल्कि उससे भी आगे तक, बढ़ा लिया था. फा हियाँ की यात्रा के समय (400 ई.) (काबुल के निकटवर्ती) उद्यान में बोली जाने वाली भाषा, मध्य भारत की भाषा ही थी. वहां के लोगों का पहनावा और खाना पीना भी वैसा ही था. उस समय बौद्ध धर्म फलफूल रहा था.[v] परन्तु सातवीं शताब्दी में ह्यून सांग की यात्रा के समय, भारत के समान ही, वहां भी बौद्ध धर्म का वर्चस्व कम हो रहा था और ब्राह्मणवाद फैल रहा था.[vi] उसे तब तक वहां इस्लाम के अस्तित्व का कोई भास नहीं हुआ.[vii]
सातवीं शताब्दी में अरब देश में एक नए धर्म, इस्लाम, का प्रादुर्भाव हुआ. शीघ्र ही ईराक , सीरिया (635), मिस्र (639), ईरान (640), त्रिपोल (647) और उत्तर-पश्चिम अफ्रीका (670) तक के सब देश इस्लाम धर्मावलम्बी अरबों ने सुगमता और तीव्रता से जीत लिए. खुरासान (कोह हिन्दुकुश के उत्तर और पश्चिम का क्षेत्र) और मध्य एशिया के कुछ भाग भी अरब खलीफा के आधीन हो गए. महान ईरानी साम्राज्य का तेज़ी से पतन हो जाने पर खिलाफत की पूर्वी सीमा “अल हिन्द” (भारत) की पश्चिमी सीमा से मिल गयी. उस समय अफ़ग़ानिस्तान में राजनैतिक स्थिति क्या थी?
ह्यून सांग के अनुसार काबुल से साठ मील की दूरी पर स्थित “कपीस” पर एक योग्य क्षत्रीय का विस्तृत राज्य था. वह इतना शक्तिशाली था कि दस छोटे राज्य उसके नियंत्रण में थे. जब अरबों ने भारत की पश्चिमी सीमा में घुस पैठ आरम्भ की उस समय दो हिन्दू राजे दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान पर शासन कर रहे थे. दक्षिण-पश्चिम में स्थित ज़ाबुलिस्तान का क्षत्रीय शासक[viii] “रुतबल” था. यह उसकी आनुवंशिक उपाधि थी जिसको मुस्लिम लेखकों ने “रतबल , रीतल , जुनबिल, रणथल …” आदि भी लिखा है.[ix] उसकी राजधानी “बुस्त” थी जो अब नष्ट हो चुकी है. उसके राज्य की सीमा ईरान तक थी. एक बौद्ध राजवंश (जिसको अल बैरूनी ने तुर्क हिन्दू शाही कहा है)[x] का शासन दक्षिण-पूर्वी अफगानिस्तान पर था. उसकी राजधानी काबुल थी. दोनों राज्यों के आपसी घनिष्ट संबंध थे और मुस्लिम इतिहासकार इस हिन्दुकुश के पूरे दक्षिणी क्षेत्र को प्रायः काबुल राज्य ही कहते थे.
दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान में अरबों की विफलता
“दक्षिणी और पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान में … 643 से 870 ई. तक की दो शताब्दियों से भी अधिक अवधि में स्थानीय जुनबिल और उससे संबंधित काबुलशाही (जो तुर्क शाही नाम से प्रसिद्ध हुए), उन्होंने प्रभावी ढंग से अरबों का विरोध किया. “[xi] (आन्ड्रे विंक). पूर्वी ईरान के पड़ोस में ज़ाबुलिस्तान भारत का सीमावर्ती राज्य था. उसकी परिसीमा पर स्थित सीस्तान प्रदेश ज़ाबुल के राजा “रुतबल” के आधीन था. सीस्तान की प्रजा द्वारा सतत संघर्ष के कारण अरबों को वहां कई बार युद्ध करना पड़ा. वहां कब्जा कर लेने के पश्चात अरब अपने आक्रमण सीस्तान से ही आयोजित करते थे, परन्तु ज़ाबुल और काबुल के शासकों के कड़े प्रतिरोध के कारण अरबों को पूरी सफलता कभी नहीं मिली. कई बार घुस पैठ हुई और कभी कभी तो वह हिन्दू क्षेत्र में काफी दूर तक जा कर लूट मार का माल (मुख्यता दास और पशु) ले आते थे. पकड़े जाने पर अरब सेनानायक को भारी निष्कृतिधन भी देना पड़ता था.[xii] पर अरब जिस सुगमता से अन्यत्र भूमि अधिग्रहण कर रहे थे वैसा यहां सम्भव नहीं था और इस विफलता से वह काफी हताश थे.
जब अब्दुल मलिक ने खिलाफत की बाग़ डोर संभाली (684-705) तो उसने हज्जाज इब्न यूसुफ़ को ईराक का गवर्नर बना दिया (694-705). हज्जाज’ इस पद से, अतिक्रूरता की नीति के अपयश के लिए जाना जाता है.[xiii] बाद में खिलाफत का पूरा पूर्वी क्षेत्र भी (भारत की पश्चिमी सीमा तक) क्रूर हज्जाज के अधिकार क्षेत्र में कर दिया गया. “698 ई में उसने उबैदुल्ला इब्न बाकरा को आदेश दिए कि वह रुतबल के देश पर आक्रमण करे और वापिस न लौटे जब तक वह सारे देश को पराभूत न कर ले या फिर नष्ट न कर दे. इस आज्ञा के अनुसार उबैदुल्ला ने वहां आक्रमण किया. बड़ी निपुणता से इस हिन्दू राजा ने अपनी सेना को रास्ते से हटा लिया और आक्रमणकारियों को अवरुद्ध आगे बढ़ने दिया. जब वे काफी आगे तक चले गए तो हिन्दू सेना ने पीछे से तंग रास्ते और दर्रे रोक लिए. इसके परिणाम स्वरुप आपूर्ति रुक जाने से मुस्लिम सेना की अकाल से नष्ट होने की स्थिति आ गई और पीछे हटना भी असंभव हो गया. उबैदुल्ला को जब अपनी अविवेकी नेतृत्व की भूल समझ आई तो उसने अपनी और अपने अनुयाइयों की मुक्ति के लिए सात लाख दरहम निष्कृति धन के रूप में देना स्वीकार कर लिया.” उसको यह भी लिखित प्रतिज्ञा करनी पड़ी कि वह फिर कभी भी इस क्षेत्र पर आक्रमण नहीं करेगा. निर्धारित की गई फिरौती का धन रुतबल के प्रतिनिधियों के पास जमा करने पर सबको निर्विघ्न लौटने की अनुमति दी गई. उबैदुल्ला के बहुत से सैनिक भूख और प्यास से मर गए. उनकी यह दुर्दशा देख कर उस दुःख से उबैदुल्ला का भी निधन हो गया. अरब सेना की यह पहली पराजय थी
इस शर्मनाक पराजय के पश्चात इस्लाम की प्रतिष्ठा के लिए कुछ प्रतिक्रिया आवश्यक थी. हज्जाज ने मुहम्मद इब्न अष्ट के पुत्र अब्दुर्रहमान को चालीस हज़ार की हथियारों से सुसज्जित “भव्य सेना” के साथ रुतबल के राज्य क्षेत्र पर आक्रमण करने के लिए भेजा. 700 ई. के लगभग वे ज़ाबुलिस्तान में प्रवेश तो कर सका परन्तु प्रचुर लूटमार करके भूमि पर अधिकार दृढ करने के बजाए वे सीस्तान लौट आये और वहां से हज्जाज को अपनी इस सफलता का समाचार भेजा. हज्जाज ने विधर्मियों (हिन्दुओं) के विरुद्ध “जिहाद” से विमुख होने के लिए उसकी घोर भर्तसना की और धमकी दी कि यदि उस वर्ष के अंत तक उसने अपने निर्धारित कर्तव्य को पूरा न किया तो उसको सेनानायक के पद से हटा दिया जाएगा .
रुतबल की सेना से युद्ध में टक्कर लेने का उन में साहस बिल्कुल नहीं था. उस के अधीनस्थ अधिकारियों ने अपने सेनानायक के साथ मिलकर अपने ही शासक का विरोध करने का निश्चय किया. यह खिलाफत के प्रति विद्रोह था जो उस समय की सबसे बड़ी शक्ति थी. अपनी स्थिति दृढ करने के लिए अब्दुर्रहमान ने अपने धर्मविरोधी (रुतबल) से एक संधि कर ली. इस के अनुसार यदि अब्दुर्रहमान अपने अभियान में सफल रहा तो रुतबल से किसी प्रकार का कर नहीं मांगा जाएगा परन्तु खलीफा के विरुद्ध इस संघर्ष में यदि वह विफल रहा तो रुतबल को उसे शरण प्रदान करनी पड़ेगी. जब बसरा और कूफा के अरब विद्रोहियों के साथ मिल गए, तो पहले तो उम्मयाद (खलीफा) का सिंहासन डोलता दिखाई देने लगा परन्तु अंततः, 704 ई में, अब्दुर्रहमान और उसके सहयोगी बुरी तरह हार गए और सीस्तान पर पुनः खलीफा का प्रभुत्व हो गया. इन लम्बी झड़पों का विवरण यहां नहीं दे रहे हैं.[xiv]
अब्दुर्रहमान बचकर (सीस्तान में स्थित) ज़ारंज आ गया जहां का सूबेदार उसने स्वयं नियुक्त किया था. परन्तु उस नगर के द्वार उसके लिए बंद कर दिए गए. कुछ और पीछे हट कर वह “बुस्त” नगर पहुंचा. वहां का हाकिम भी उसी द्वारा नियुक्त हुआ था. पहले तो वहां उसके साथ सहृदयतापूर्ण व्यवहार हुआ पर जब उसकी सेना के साथी विसर्जित हो गए तो उसे बेड़ियां पहना दी गईं ताकि उसे हज्जाज के हवाले कर दिया जाए. ज़ाबुल के हिन्दू राजा रुतबल ने जब इस विश्वासघात के बारे में सुना तो वह स्वयं अपनी सेना लेकर आया और अबुर्रहमान को रिहा कराके साथ ले गया. उसे अपने परिरक्षक से आदर और उदारतापूर्ण व्यवहार मिलता रहा. इस संघर्ष की चर्चा पूरी खिलाफत में होने लगी और रुतबल का नाम इतना व्याख्यात हो गया कि वह इस्लामी धर्मयुद्ध की कई अरबी कहानियों का नायक बना दिया गया. रुतबल एक दुर्जेय शत्रु था जिसने सीस्तान को अरबों के लिए एक अभागा सीमा प्रदेश बना दिया था.[xv] निरंतर राजनैतिक हस्ताक्षेप से रुतबल ने इस्लाम के विस्तार को रोक दिया था और अगले डेढ़ सौ वर्ष तक अरब इस क्षेत्र में स्थाई रूप से लाभान्वित नहीं हो सके. ज़ाबुल और काबुल के दोनों हिन्दू राज्य अपनी संप्रभुता बनाये रहे.[xvi]
अरब शक्ति के लिए, जिसने उस समय तक कई देश बिना कठिनाई के जीते थे, यह महान विफलता बहुत बड़ी अपकीर्ति थी. एक और घटना जिससे इसकी तुलना की जा सकती है कुछ दशकों के पश्चात (732 ई. में) हुई जब स्पेन से फ्रांस जाने के प्रयास में पिरेनीज़ पर्वत को पार कर रही अरब सेना को फ़्रांस द्वारा पीछे धकेल दिया गया. इस से योरुप इस्लामी झंझावत से बच गया. एडवर्ड गिब्बन ने इस काण्ड का वर्णन इन शब्दों में किया है:
अरब जब रेगिस्तान से निकले तो अपनी सफलता की सुगमता और तीव्रता पर पहले तो उन्हें स्वयं आश्चर्य हुआ होगा. पर अपने विजय अभियान में बढ़ते हुए जब वह सिन्ध नदी के तट पर और फिर पिरेनीज़ पर्वत के शिखर पर पहुंचे, और जब उनकी खड्ग की धार भी तेज़ थी और धर्मनिष्ठा भी गहरी थी, तो उनको उतना ही अचंभा हुआ होगा की कोई राष्ट्र उनकी अजेय शस्त्र शक्ति को रोक सकता है या उनके पैग़ंबर के उत्तराधिकारी के प्रभुत्व को सीमाबद्ध कर सकता है.[xvii]
भारत पहला राष्ट्र था जिसने अरबों की “अजेय शस्त्र शक्ति” को रोक कर रखा जब कि अभी वह अपने मौलिक धार्मिक उन्माद में थे. उल्लेखनीय है कि ज़ाबुल से हार के 300 वर्ष पश्चात ही गज़नी का मुस्लिम राजवंश दर्रा खयबर पार करके पंजाब पर आधिपत्य जमा सका. इतने दीर्घ काल तक खयबर के दोनों ओर राज कर रहे हिन्दू शासकों ने भारत की उस पश्चिमोत्तरी सीमा को पूर्णतया सुरक्षित रखा. कि
सिंध के विरुद्ध अरब अभियान
दक्षिण अफ़ग़ानिस्तान में अरबों की असफलता से हताश हो कर हज्जाज ने एक और सीमावर्ती प्रदेश सिंध की ओर ध्यान केंद्रित किया. मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने अपनी पुस्तक ह्यूमैनिटी ऐट डैथस डोर और मौलाना नादवी ने इंडो-अरब रिलेशन्ज़ में लिखा है की 638 और 711 के बीच अरबों ने सिंध पर पन्द्रह आक्रमण किये. “चचनामा” में इनका विवरण उपलब्ध है. [xviii]
प्रारंभिक धावे थाना (मुंबई के निकट), ब्रोच और देवल (कराची के निकट) पर, खलीफा उमर के समय (634-43) में ही समुद्री मार्ग से हुए. इसके पश्चात कम से कम छह अभियान दर्रा बोलन और क्वेटा से स्थल मार्ग से थे. यह खलीफा अली (655-60) और मुआविया (661-79) के कार्यकाल में थे. आक्रमकों और खलीफा शासकों के लिये भारत जैसे अमीर देश पर छापे मारना बड़ा आकर्षक था क्योंकि लूट का पांचवां भाग राज्य को मिलता था और शेष सैनिकों में वितरत कर दिया जाता था. इन अभियानों द्वारा असुविधाजनक तत्व भी देश से दूर रखे जा सकते थे. भूमि पर कब्ज़ा न कर पाने पर भी इन दलों के नेता प्रायः धन और गुलाम (बंदी) ले कर आते थे. परन्तु बहुदा वह मारे भी जाते थे. सिंध के इस पर्वतीय क्षेत्र की वीर जनता ने अपनी भूमि पर विदेशी राज्य कभी नहीं स्थापित होने दिया.
जब अफ़ग़ानिस्तान में पराजय के पश्चात हज्जाज मुस्लिम प्रतिष्ठा बचाने में पूरी तरह असफल रहा तो उसने उबैदुल्ला बिन नाभन को देवल पर आक्रमण करने के लिये भेजा परन्तु वहां पर सेनानायक समेत सब मुस्लमानों का वध कर दिया गया. उसने उम्मान के हाकिम बुदैल (या बाज़िल) को एक बड़ी सेना देकर देवल पर पुनः आक्रमण का आदेश दिया. देवल के लोगों ने सिंध के ब्राह्मण राजा डाहर को एक संदेशवाहक भेज कर सूचित किया कि बुदैल निरून नगर तक पहुंच गया था. डाहर ने अपने ज्येष्ठ पुत्र जयसिंह को उष्टारोही (ऊँट पर सवार) और अश्वारोही 4000 सैनिक देकर शीघ्रता से देवल की ओर भेजा. घमासान युद्ध हुआ और अंत में अरब सेना पराजित हुई. बुदैल मारा गया और बहुत से मुस्लमान बन्दी बना लिये गये. हज्जाज को इससे बहुत दुःख हुआ और उसने इस अपमानजनक आपदा का बदला लेने का प्रण किया. उसने बड़ी सावधानी से उत्कृष्ट सैनिकों का चयन करके प्रचुर सामरिक सामग्री और यंत्रों से सुसज्जित एक विशाल सेना का गठन किया. अपने दामाद मुहम्मद बिन कासिम के नेतृत्व में समुद्र और स्थल मार्गों से इनको देवल भेजा. इसके लिये हज्जाज ने अपनी पूरी शक्ति लगा दी. जाते समय उसने मुहम्मद को कहा “अल्लाह की कसम खाता हुँ कि ईराक में मेरे पास जितनी सम्पत्ति और साधन हैं सब इस मुहिम पर लगा दूँगा. जब तक बुदैल के वध का बदला नहीं लिया जाता तब तक मेरे दिल की आग ठंडी नहीं होगी”.
अरबों को कई बार पराजित कर चुके (जिन में से दो झढ़पें तो ताज़ा थीं) डाहर ने इस अभियान को भी सहजता से लिया. उसके लिए यह केवल शौर्य और सम्मान की प्रतिस्पर्धा मात्र थी. उसके विरोधियों द्वारा लिखित वृतांत से यही मत उभर कर आता है (चचनामा).[xix] युद्ध में वीरता से लड़ता हुआ डाहर मारा गया. उसके पश्चात भी अरब सेना को ऊपरी सिंध में मुलतान की ओर बढ़ते समय हर बड़े नगर और दुर्ग में कड़े प्रतिरोध और लम्बे काल की घेराबंदी का सामना करना पड़ा. अरबों को भारत में पांव जमाने का अवसर मिल गया था पर राजस्थान और गुजरात के पड़ोसी राजपूत राज्यों ने अरबों को सिंध के भीतर सीमित रखा. अरबों द्वारा सिंध पर कब्जा और उसके बाद का इतिहास हमारी इतिहास पुस्तकों में उपलब्ध है.
अफ़ग़ानिस्तान में ग़ैर अरब मुस्लिम राज्य
सिद्धांत रूप से, पैगम्बर के उत्तराधिकारी के रूप में खलीफा सभी प्रकार की राजनैतिक सत्ता का मूल स्रोत था. सभी मुस्लिम शासक और जनजातीय प्रमुख उसके आधीन थे और खलीफा द्वारा मान्यता ही उनकी शासनिक सत्ता की वैधता का आधार हो सकता था. खलीफा की राजसत्ता क्षीण होने से खुरासान में नियुक्त उसके राज्यपालों ने अपने शक्तिशाली राज्य स्थापित कर लिए और खलीफा की प्रभुता वाले क्षेत्र जीत कर अपने शासन और वैधता के लिए खलीफा से मान्यता प्राप्त करने के लिए वह अपने सैन्य बल से उसे धमकाते थे.
सामानी राजवंश (लगभग 819-1005 )
समन खुदा बुख़ारा का एक धर्म परिवर्तित पारसी राजा सामानी राजवंश का संस्थापक था. इस्लाम के आने के पश्चात वहां का यह पहला देशीय राजवंश था जो खलीफा से लगभग स्वतंत्र था. बहुत बड़े क्षेत्र पर इनका प्रशासन था. इनके सुशासन से आमुपार और खुरासान में उद्योग और वाणिज्य के विस्तार से उल्लेखनीय समृद्धि हुई. सामानी महान कला संरक्षक थे और उन्होंने समरकंद और बुखारा’ प्रसिद्ध सांस्कृतिक केंद्र बना दिये थे जो बगदाद के प्रतिद्व्न्द्वी थे. वह सीमा पार (जक्सकार्ट्स) से लाये गए दासों को सेना और राज्य के अन्य कार्या लों में नियुक्त करने लगे. दसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से जब वे स्वयं “उच्च संस्कृति” में तल्लीन थे, उन्होंने सेना का दिशानिर्देशन तथा राज्यों के राज्यपाल के पद तुर्की सेनानायकों के हवाले कर दिये. अंत में एक तुर्क “ह्जीब” (द्वारपाल) ने ग़ज़नी में एक स्वतंत्र रियासत की स्थापना की जिस ने आगे चल कर आक्सस और गंगा के बीच स्थित सभी राज्यों के लिए संकट उत्पन्न कर दिया.
सफ़ार राजवंश
याकूब-ऐ-लाइस, जिसने अभी अभी सत्ता हथियाई थी, वह सीस्तान का शासक बन गया (शासनकाल लगभग 867-879). वह इतना शक्तिशाली हो गया कि सामानी या खलीफा भी उसको नियंत्रित नहीं रख सके. उसने ज़ाबुलिस्तान के रुतबल की संप्रभुता वाले क्षेत्र पर अतिक्रमण आरम्भ कर दिये. अंत में रुतबल ने अपनी सेना एकत्रित करके 870 में याकूब की ओर प्रस्थान किया. जब याकूब “शत्रु की इतनी भारी भीड़” के सामने आया तो उसने युद्ध करने के स्थान पर कपट और धोखे का प्रयोग करने का निश्चय किया. रुतबल को श्रद्धांजली अर्पण करने की चाल से विश्वासघात द्वारा उसका वध करने में सफल हो गया.[xx]
इस कपट के परिणाम स्वरूप ज़ाबुलिस्तान का हिन्दू राज्य, जिसने 200 वर्ष से अधिक काल तक मुस्लिम सैन्य शक्ति का वीरता से प्रतिरोध किया था, उसका अस्तित्व समाप्त हो गया. इसके सभी निवासियों को इस्लाम धर्म में परिवर्तित होना पड़ा. खयबर दर्रे के दोनों ओर भी काबुल का एक हिन्दू राज्य था. इसकी पश्चिमी सीमा अब भारत की उत्तर-पश्चिमी परिसीमा बन कर रह गई. ज़ाबुलिस्तान के समान ही इस काबुल के राज्य ने भी एक से अधिक शताब्दी के लिए कड़े प्रतिरोध की भूमिका निभाई. शायद इस शांतिकाल में अचिंत रहने के कारण जब इस्लामी झंझावत भारत की मुख़्य भूमि तक पहुंचा तो देश अपनी रक्षा करने में विफल रहा.
इस दौरान काबुल के बौद्ध शाहि राजवंश को हटा कर सत्ता एक ब्राह्मण राजवंश के पास आ गई थी.[xxi] यहां से आगे का वृतान्त अबू रेहान मुहम्मद, जो आम तौर पर अल बैरूनी के नाम से जाना जाता है, उस द्वारा लिखित पुस्तक के आधार पर दे रहे हैं. उसने लिखा है “काबुल में हिन्दू राजा थे.” इस राजवंश की साठ पीढ़ियों ने वहां शासन किया. इनका अंतिम राजा लक्तुज़मान (कटोरमान) था और उसका कल्लर नाम का वज़ीर एक ब्राह्मण था. कटोरमान के विचार और कार्य बुरे थे. वज़ीर ने सुधार के लिए उसको कैद में डाल दिया और राजतंत्र अपने हाथ में ले लिया. इस प्रकार एक नये राजवंश की स्थापना हो गई.
अल बैरूनी के अनुसार “कल्लर का उत्तराधिकारी सामन्द (सामन्तदेव) था, उसका उत्तराधिकारी कमलवा (कमलवर्मन), उसका उत्तराधिकारी भीम (भीमदेव), उसका उत्तराधिकारी जयपाल, उसका उत्तराधिकारी अण्डपाल (आनन्दपाल) और उसका उत्तराधिकारी नरदजनपाल (त्रिलोचनपाल ) जिसका 1021 ई. में वध हो गया. उसका पुत्र भीमपाल उसका उत्तराधिकारी बना परन्तु पांच वर्ष के पश्चात भारत की संप्रभुता समाप्त हो गई और उनकी समाधि पर दीप जलाने वाला भी कोई नहीं बचा.”[xxii] अल बैरूनी भारत में कई वर्ष रहा. वह त्रिलोचनपाल (1011-1021) का समकालीन था. अन्य विश्वसनीय सूत्रों से उपलब्ध जानकारी से जब भी अल बैरूनी के उपरोक्त वृतान्त की जाँच हो सकी तो इसे सही पाया गया है. अल बैरूनी की नामपद्धिति के अनुसार यह सब शासक “ब्राह्मण हिन्दू शाहि” कहलाते हैं जबकि इससे पहले वाले राजवंश को “तुर्क हिन्दू शाहि” कहा जाता है.
ब्राह्मण हिन्दू शाहि की इस सूचि के पहले चार शासक काबुल राज्य के संरक्षण में पूरी तरह सक्षम रहे. खिलाफत का लगभग पूरा पूर्वी भाग सामानी शासकों के आधीन था और वह अपने पड़ोसी राज्यों से युद्ध करते रहते थे परन्तु काबुलशाहियों से उनका कोई संघर्ष नहीं हुआ और इसलिए उस समय के मुस्लिम इतिहास में शाहि राजाओं का कोई उल्लेख नहीं है. इस कारण से शाहि वंश के इतिहास के संकलन में बहुत कठिनाई आती है. अल बैरूनी की इस परमुपयोगी जानकारी के अतिरिक्त मोहम्मद ऊफी द्वारा लिखित जमी-उल-हिकायत और कल्हण की राजतरंगिणी जैसे कुछ पुराने स्रोतों में भी इनका कुछ उल्लेख है. इस आंशिक सूचना में अंतराल की पूर्ती प्रकल्पित सिद्धांतों द्वारा करनी पड़ती है और इस कारण इतिहासकार के लिए यह एक चुनौती पूर्ण काल है. इस प्रयास में शाहि सिक्के और शिलालेख, जो प्रायः अफ़ग़ानिस्तान में उपलब्ध होते रहते हैं, बहुत उपयोगी हैं.
उन्नीसवीं शताब्दी में प्रिन्सेप, कनिंघम, टामस, स्टाइन, स्मिथ, इलियट, मैकडॉवल, वैद्य, राय, हबीब और नाज़िम जैसे कई भारतीय और विदेशी विद्वानों ने शाहि इतिहास के विषय में उपयोगी जानकारी और सुझाव दिए थे. परन्तु शाहि इतिहास लेखन इन शोधकर्ताओं का एक मात्र या मुख्य विषय नहीं था. फिर भी इतिहास और मुद्राशास्त्र के क्षेत्र में बाद के लेखकों के लिए यह ज्ञान भण्डार बड़ा उपयोगी था. 1970 से चार पुस्तकें विशेष रूप से “अफ़ग़ानिस्तान के शाहि” विषय पर लिखी जा चुकी हैं.[xxiii]
कल्लर: अल बैरूनी की सूची के अनुसार कल्लर (सिक्कों के स्पलपतिदेव) ने बिना राजा की उपाधि धारण किये “शौर्य और गौरव” से शासन किया. अरबों द्वारा शाहि राजधानी काबुल में फिर कभी घुस पैठ नहीं हुई और इस कारण मुस्लिम इतिहास में कल्लर का नाम नहीं आता. उसने वृष और अश्वारोही वाले सिक्के चलाये. सिक्कों पर अंकित बैल (नन्दी) और त्रिशूल से पता चलता है कि यह नये शासक शिव के उपासक थे जबकि इस से पूर्व के राजा बौद्ध धर्म के पोषक थे. सिक्कों के ऊपर अस्त्र (भाला) उठाये अश्वारोही का अंकन नए शासन की शक्ति का द्योतक है.
सामन्तदेव: कल्लर का उत्तराधिकारी सामन्तदेव था. उस की पहचान राजतरंगिणी के लल्लिय शाहि से करनी पड़े गी. राजतरंगिणी में इस शक्तिशाली शासक का बड़ा रोचक विवरण है.
अलखान का संरक्षक, विख्यात लल्लिय शाही – जिसका राज्य दारद और तुरुष्क शासकों के बीच (फंसा) है … जिस के उदभण्ड नगर में अन्य राजा आश्रय लेते हैं … जिसका पराक्रम और यश उत्तरापथ के अन्य शासकों से अधिक है, जैसे सूर्य की चमक आकाश के अन्य नक्षत्रों से तीव्र होती है … शंकर वर्मन उस (शाहि) को सार्वभौम सत्ता से हटाना चाहता था.[xxiv]
ज़ाबुलिस्तान के हिन्दू राजा का अंत हो जाने पर शाहि अपनी राजधानी काबुल से स्थानांतरित कर के उदभण्डपुर (वैहुँड या अण्ड) ले आये जो अट्टक से चौदह मील ऊपर सिंध नदी के दायें हाथ पर स्थित है. सही समय पर किया गया यह सामरिक महत्व का निर्णय था.
कमलवर्मन: सामन्तदेव के पश्चात उसका पुत्र कमलवर्मन, सम्भवता 895 ई में अभिषक्त हुआ. तब तक सफ़ार राज्य की बागडोर याक़ूब-ए-लईस के भाई अमर-ए-लईस के हाथ में आ चुकी थी और ज़ाबुलिस्तान भी उसके आधीन था. शायद खलीफा के उकसाने पर अमर आक्सानिया पार कर के सामानी राज्य से संघर्ष कर रहा था पर पड़ोस के ब्राह्मण शाहियों से उस ने कोई छेड़ छाड़ नहीं की थी. परन्तु अमर द्वारा ज़ाबुलिस्तान में नियुक्त किये गए नये गवर्नर (सूबेदार) फर्दगन ने एक अटपटी स्थिति उत्पन्न कर दी. वह अपनी सेना लेकर हिन्दुओं के एक पवित्र धर्मस्थल साकावण्ड गया, वहां मंदिर की सब मूर्तियाँ तोड़ डाली और मूर्तिपूजकों का विनाश कर डाला. “कमल (कमलवर्मन) जो हिन्दुस्तान का राजा था, उसको जब इस विध्वंस की सूचना मिली तो उसने एक विशाल सेना एकत्रित की और ज़ाबुलिस्तान की और प्रस्थान किया जहां साकावण्ड स्थित था. मुहम्मद ऊफी के कथनानुसार, जो वृतांत सभी इतिहासकार दोहराते हैं, फर्दगन ने एक अफवाह फैला दी के अमर-ए-लईस एक भारी सेना लेकर स्वयं आ रहा था और इस जानकारी से कमलवर्मन जहां था वहीं रुक गया.[xxv] परन्तु एक और खोजकर्ता ने सिद्ध किया है की यह बहु-उद्धृत ऊफी का वृतांत सत्य नहीं है. “तारीख़ सीस्तान” के अनुसार दो हिन्दू राजे अपनी संयुक्त सेनाओं के साथ आये और ग़ज़नी पर आक्रमण कर दिया.[xxvi] कमलवर्मन का उल्लेख राजतरंगिणी में भी आता है. उस में एक “शाही विग्रह” के बारे में लिखा है कि एक शाहि द्वारा राजसिंहासन के अनाधिकृत ग्रहण पर कश्मीर राज्य ने हस्ताक्षेप कर के कमलवर्मन को पुनः वहां सुशोभित कर दिया.[xxvii]
भीमदेव का, तत्पश्चात, उत्तराधिकारी के रूप में राज्याभिषेक हुआ. देवई शिलालेख में उसको “गदाहस्त, परम भट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर श्री भीमदेव” वर्णित किया गया है.[xxviii] उसने एक स्वर्ण मुद्रा चलाई जिसके मुख की “श्री भीमदेव” और पृष्ठ पर “श्रीमद गुणनिधि श्री सामन्तदेव” अंकित है. अपने पूर्वज के प्रति यह एक अभूतपूर्व मार्मिक तथा भावुक श्रद्धांजलि है.
चंदेल राजा ढंग वि. सँ. 1011 (154-55 ई) की खुजराहो शिलालेख में एक अत्यंत रोचक वृत्तांत अंकित है. इसके अनुसार “भोटा नरेश को कैलाश (तिबत) से वैकुंठ की प्रतिमा प्राप्त हुई. उन से यह कीरा नरेश को मैत्रीवश उपहार स्वरुप मिली. उनसे शाहि को मिली. तदुपरांत हरम्बपाल (महिपाल) ने हाथी-घोड़ों के बल के बदले इसे शाहि से प्राप्त किया.”[xxix] इसमें आगे वर्णित है कि अंततः यशोवर्मन ने खुजराहो में एक अत्यंत सुंदर मंदिर बनवा कर इस मूर्ती को वहां प्रतिष्ठित कर दिया. कन्नौज के गुर्जर प्रतिहार वंश के नरेश महिपाल (लगभग 914-948) भीमदेव के समकालीन थे जिसे इस अभिलेख में शाहि कहा गया है. इस से स्पष्ट हो जाता है के भीमदेव अपनी सैनिक तैयारी के बारे में पूरी तरह जागरूक थे और अपनी अश्वारोही सेना तथा अन्य सेना बलों को युद्धपरक बनाये रखने के लिए प्रयास करते रहते थे.
सफारी राज्य की कमज़ोरी का लाभ उठाते हुए शाहियों ने पश्चिमी सीमा पर अपनी गतिविधियां और तेज़ कर दीं और ग़ज़नी में अपना मित्र राज्य स्थापित कर दिया. ग़ज़नी के “लवीक” उपाधि से जाने वाले हिन्दू शासक, सुरक्षा और सहायता के लिए भीमदेव की शरण में आते थे.
भीमदेव की एक ही बेटी थी और कोई पुत्र नहीं था. उसकी विवाह सिंहराज नाम के राजा से हुआ जो कि लोहर और अन्य शक्तिशाली गढ़ों का स्वामी था. मोटे तौर पर यह अब कश्मीर में पुंछ और राजौरी का क्षेत्र माना जाता है. इस विवाह से उत्पन्न उन की पुत्री, दिद्दा, का विवाह क्षेमगुप्ता से हुआ जो वहां का राजा बना (950-958). इस रानी के पराक्रमी नाना भीम शाही ने कश्मीर में मार्तण्ड के समीप अति सम्पन्न “भीमकेशव” मंदिर बनवाया.
अन्य कई संतों और सामंतों की मान्यताओं के अनुरूप वृद्धावस्था में भीमदेव ने भी स्वेच्छा से प्राण त्याग कर अपने आप को भगवान शिव को अर्पित कर दिया. उस समय उसकी राज सत्ता उस क्षेत्र में चर्मोत्कर्श पर थी और पड़ोस से किसी शत्रु का भय नहीं था. क्योंकि यह उसका अपना पूर्वनियोजित निर्णय था इस लिये वह योग्य उत्तराधिकारी भी स्वयं नियुक्त कर सकता था. .
जयपालदेव: “जयपाल के समय की हुण्ड पटिया शिलालेख” से भी अल बैरूनी के उस कथन की पुष्टि हो जाती है कि जयपाल भीमदेव का उत्तराधिकारी था. इस शिलालेख के अनुसार (पद्य पंक्ति iii, vii और xi) “सिंधू (नदी) के उत्तर में … उदभण्ड नाम का (एक नगर) है … वहां पर राजाधिराज, भीम, रहता था … जिसने अपने आप को अग्नि में भस्म कर दिया … शिवजी की इच्छा से, किसी भयानक शत्रु के डर से नहीं … (उस देश) का राजा (अब ) जयपालदेव है.”[xxx] फ़रिश्ता ने लिखा है “उस समय ब्राह्मण कबीले का जयपाल सरहिंद से लमगान तक लम्बे और कश्मीर राज्य से मुलतान तक चौड़े देश पर राज करता था”. “जयपाल राज्य के समय की बारीकोट शिलालेख” में उसको “परम भट्टारक, महाराजाधिराज, परमेश्वर श्री जयपालदेव” कहा गया है.[xxxi] भीमदेव की भी यही उपाधियाँ थीं .
जैसे पहले बताया गया है, दसवीं शताब्दी के मध्य तक तुर्की दासों ने अपना प्रभुत्व जमाना आरम्भ कर दिया था. अलप्तगीन ने जो पहले एक “हजीब” (द्वारपाल) था उसने गज़नी में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित कर लिया था (961) जो धीरे धीरे काफी शक्तिशाली हो गया. जयपाल ने अपने पुत्र को एक बड़ी सेना दे कर लवीक को पुनः गज़नी में पदासीन कराने के लिए भेजा परन्तु काबुल और गज़नी के बीच चरक नाम के स्थान पर लवीक और उसका सहयोगी दोनों ही एक युद्ध में मारे गए. सबुक्तगीन जिस ने इस युद्ध में सफलता पाई थी गज़नी का सुलतान (शासक) बन गया. उसने “अपने शासन के पहले बारह वर्षों में ही अपने राज्य की सीमाएं उत्तर में आक्सस (नदी) तक और पश्चिम में आज के ईरान और अफ़ग़ानिस्तान के बीच की सीमा तक बढ़ा ली थीं”. इसी बीच सबुक्तगीन उदभण्ड के सीमावर्ती क्षेत्रों पर भी उत्पात करता रहता था. ऐसी परिस्थिति में “हिन्द” के साथ संघर्ष बहुत समय तक नहीं टल सकता था. जयपाल ने तुर्कों को पीछे धकेलने और समस्या का सदैव के लिये समाधान करने का निश्चय किया. उस ने दो बार सबुक्तगीन पर आक्रमण किये पर अपने ध्येय में विफल रहा. प्रत्याक्रमण में दर्रा खयबर पार का शाहि राज्य का अफ़ग़ानिस्तान स्थित भाग हमेशा के लिए हिन्दू भारत के हाथों से निकल गया. उसके बाद का, जयपाल, उसके पुत्र आनन्दपाल और पौत्र त्रिलोचनपाल द्वारा तुर्कों का प्रचंड प्रतिरोध करने का वृतांत भारत के इतिहास की पुस्तकों में उपलब्ध है हालांकि वह सब विजेता का पक्ष ही दर्शाता है.
हिन्दू शाहि इतिहास की अनसुलझी समस्याएं
विभिन इतिहासकारों के आख्यानों से प्राप्त सूचना के आधार पर गठित इन ब्राह्मण राजाओं के इतिहास में अब भी कई अनसुलझे मुद्दे हैं जिनके संतोषजनक उत्तर उपलब्ध नहीं हैं. स्थानाभाव के कारण हम ने इन्हें छोड़ दिया है क्योंकि प्रत्येक के विभिन्न प्रतिस्पर्धात्मक पहलू का विश्लेषण करना आवश्यक हो जाता है. अल बैरूनी तथा शिलालेखों में प्रदर्शित क्रमिक उत्तराधिकार का ब्योरा स्वीकार्य है. परन्तु इन शासकों का आपसी रिश्ता क्या था इसका कहीं भी उल्लेख नहीं है. और जयपाल कौन था? सरहिंद और काबुल के बीच इतना विशाल क्षेत्र उस के आधीन इतनी सुगमता से कैसे आ गया जबकि उस से पूर्व के शाहि, सिंध के उत्तर-पश्चिम के अफ़ग़ानिस्तान क्षेत्र पर ही राज कर रहे थे? उस समय सिंध और सतलुज नदियों के बीच (पश्चिमी) पंजाब पर कौन राज करता रहा था जिस के बारे में जवाहरलाल नहरू और अन्य लेखकों ने अपनी अनभिग्यता प्रगट की है?
मोहयाल पंजाब के सारस्वत ब्राह्मणों की एक शाखा हैं. उनके मौखिक, किवदंतियों तथा लिखित स्रोतों पर आधारित इतिहास में इन सब प्रश्नों के विश्वसनीय और प्रमाणिक उत्तर उपलब्ध हैं. इस के लिये हम रायजादा हरिचन्द वैद लिखित “गुलशने मोह्याली (उर्दू, लाहौर, 1923 , 414 पृष्ठ) की सहायता ले रहे हैं. उन्हों ने लिखा है कि उनका वृतांत विशेषकर नवीं और दसवीं शताब्दी के पंजाब के राजाओं का वर्णन स्वर्गीय लाला गणेशदास के (फारसी) ग्रन्थ “तवारीख साहब नुमा” के आलेख से लिया गया है. उन का वृत्तांत इस प्रकार है.
लक्तुज़मान को राजगद्दी से हटाने के पश्चात, राज्य के अन्य सामंतों से विचार विमर्श करके ब्राह्मण वज़ीर कल्लर ने प्रशासन में यथोचित सुधार करने के पश्चात एक “विजयी, वीर तथा युद्ध पराक्रमी (जंग आज़मूदा)” प्रमुख को काबुल की राजगद्दी पर विभूषित कर दिया. अभी तक इस प्रकार के किसी युद्ध का वर्णन उपलब्ध नहीं था जिस में काबुल के किसी सेना नायक ने उस काल में कोई आशातीत ख्याति प्राप्त की हो. परन्तु हाल ही में (2001) मज़ारे शरीफ में मिले एक शिलालेख में एक ऐसे राजा का वर्णन है जिस ने अपनी “अष्टभुजी वाहिनी के बल पर पृथ्वी, मंडियों तथा दुर्गों पर कब्ज़ा कर लिया” तथा उमा सहित शिव की प्रतिमा परिमहा मैत्य (महामंत्री अर्थात कल्लर) द्वारा मतस्य में स्थापित करवाई.[xxxii] इस समय शाहियों ने “उत्तरी क्षेत्र” पर अधिकार जमा लिया जो 872 से स्फारीदों के आधीन था. यह विवरण कल्लर के “जंग आज़मूदा” उत्तराधिकारी नियुक्त किये जाने की पुष्टि करता है.
“गुलशने मोह्याली” के अनुसार ही सामन्तदेव कल्लर का बेटा नहीं था. कमलवर्मन सामन्तदेव का पुत्र और भीमदेव उस का पौत्र था. पंजाब के इतिहास के विषय में, योद्धा ब्राह्मणों के मुखिया राजा बचनपाल ने नवीं शताब्दी के आरम्भिक वर्षों में पंजाब पर आधिपत्य जमा लिया था. उसके पश्चात उसके उत्तराधिकारी उसका पुत्र रणपाल, पौत्र बीर सिंह और प्रपौत्र पृथ्वीपाल थे. काबुल और पंजाब के यह दोनों राज्य एक राजनैतिक इकाई के समान शासन कर रहे थे. वह मध्य एशिया के सामानी और मध्य भारत के प्रतिहार राज्यों के प्रति सफल “शक्ति संतुलन” बनाये हुए थे. अपने क्षेत्र से गुज़रने वाले अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर करारोपण से उनको पर्याप्त आय थी.
“जब इस महान योद्धा भीमदेव का बिना किसी पुत्र उत्तराधिकारी के स्वर्गवास हो गया तो उसका राज्य पंजाब के शासक पृथ्वीपाल के आधीन कर दिया गया.” एक वर्ष में ही पृथ्वीपाल का भी निधन हो गया और उसका पुत्र जयपाल पंजाब और काबुल के संयुक्त राज्य का स्वामी बन गया. जब जयपाल का राज्याभिषेक हुआ तो उसने अपने से पूर्व के काबुलशाहि वंश की परम्परा के अनुसार अपने वंशगत “पाल” नाम के अंत में “देव” लगा कर “जयपालदेव” कहलाने लगा. उसके जीवनकाल में ही उसके राज्य का अफ़ग़ानिस्तान भाग उनकी संप्रभुता से निकल गया और इस कारण उसके उत्तराधिकारी आनन्दपाल, त्रिलोचनपाल और भीमपाल ने अपने नाम के साथ “देव” नहीं लगाया. आज की मोहयाल बिरादरी के छिब्बर /दत्त /वैद जातियों के लोग क्रमशः सिंध के डाहर /अफ़ग़ानिस्तान के भीमदेव और पंजाब के जयपाल को अपने पूर्वज मानते हैं.
मोहयाल इतिहास (गुलशने मोह्याली) के यह विवरण ब्राह्मण शाहि इतिहास के विलग खण्डों को बड़े विश्वसनीय रूप से जोड़ देते हैं.
लगभग 650-1000 के ज़ाबुल, काबुल और पंजाब के इस संक्षिप्त इतिहास वर्णन के पश्चात यह प्रश्न उठता है कि क्या कारण था की हज़ार वर्ष के विदेशी शासन के दौरान उपरोक्त अवधि के इतिहास को भारत के इतिहास के कथन से बाहर रखा गया. इसका कारण बताते हैं. अब्दुल-कादर इब्न-ऐ-मुल्क शाह ने जो बदाऊनी के नाम से विख्यात है उसने भारत के इतिहास की पुस्तक लिखी है जिसे उसने “मुन्तखबुत तवारीख“[xxxiii] (इतिहास से चयन) का नाम दिया है. वह अपना विवरण सबुक्तगीन से आरम्भ करता है और उससे पूर्व की तीन शताब्दियों में अरब और सामानियों द्वारा भारत की मुख्य भूमि तक न पहुंच सकने की विफलता का कोई संकेत नहीं देता. और इसकी व्याख्या इस प्रकार करता है: “इस्लामी बादशाहों में हिन्दुस्तान को सब से पहले जीतने वालों में नसीरुद्दीन सबुक्तगीन था जिसका बेटा सुल्तान महमूद ग़ज़नवी (था ) … जिसके पुत्रों के शासन काल में लाहौर उनकी राजधानी बन गया और तब से इस्लाम ने हिन्दुस्तान पर अविरत अपनी पकड़ बनाई हुई है. इसलिए मैंने भी श्रेयस्कर समझा की में भी इतिहास का वर्णन उस बादशाह से आरम्भ करूँ जिसका अंत बहुत गौरवशाली रहा .
मुस्लिम इतिहासकारों का अफ़ग़ानिस्तान में इस्लाम के “गौरवहीन” इतिहास को पूर्णतया आच्छादित रखने का यही कारण था. अपने क्रम में ब्रिटिश शासन के लिए भी इतिहास लेखन की यह परिपाटी बड़ी सुखद थी क्यिोंकि वह तो स्वयं इस विचारधारा का प्रचार कर रहे थे की हिन्दुओं ने सदैव बिना किसी प्रतिरोध के सभी आक्रमणकारियों का स्वागत किया. स्वतंत्रता के पश्चात अपने को “धर्मनिर्पेक्षतावादि” कहने वाले इतिहासकार, जिनका भारत में इतिहास के शोध, लेखन और शिक्षण पर मुख्यता नियंत्रण था, उन्हों ने भी इस आवरण को हटाने का प्रयास नहीं किया .
यह एक विलक्षण उपलब्धि थी की हिन्दुओं ने उन अरबों को परास्त किया (700 ई.) जो तब तक अन्यत्र सदैव विजयी रहे थे. अगले 300 वर्ष तक अरबों के स्थान पर मध्य एशिया में जो शक्तिशाली मुस्लिम राज्य उभरे उन से भी सामरिक महत्व के दर्रा खयबर को सुरक्षित रखा. यह बहुत दुखद है के हमारे “राष्ट्रवादी” इतिहासकारों ने भी भारत इतिहास के इस गौरवशाली अध्याय को उजागर करने का कोई प्रयास नहीं किया. साधारणतया पाठकों की धारणा यही है कि इंडो-इस्लामिक इतिहास निरंतर पराजय और उत्पीड़न का काल है. इस सही विवरण के प्रचार से यह भ्रम दूर होगा और आत्मसम्मान की भावना जगे गी. एक समस्या ये है कि ब्रिटिश शासन में पाठ्यक्रम इस प्रकार सुनिश्चित किये गए थे क़ि इस कालखंड (650-1000) का इतिहास किसी स्तर की कक्षा में भी नहीं पढ़ाया जाता. एक और समस्या यह भी है कि विश्वविद्यालयों में प्राचीन विभाग के मुख्य अध्यापकों ने यह न कभी स्वयं पढ़ा न पढ़ाया. इस कारण वह अपने पी. एच डी. के विद्यार्थियों को इतिहास के इस काल और क्षेत्र के बारे में शोध करने के लिए भी संभवतः प्रोत्साहित नहीं करते. समय आ गया है कि भारत के इतिहास के इस खंड की दीप्तिमान घटनाओं का विद्यालयों और विश्विद्यालयों में पढ़ाये जा रहे पाठ्यक्रम में समावेश किया जाए.
[1] Jawahrlal Nehru, India’s Quest, Being Letters on Indian History from ‘Glimpses of World History’ p. 94, Asia Publishing House, 1963.
[ii] The Cambridge History of India, Vol. III, pp. 506-507.
[iii] History of Mediaeval Hindu India (New Delhi, reprint, 1979) Vol. II, p. 159.
[iv] Thakur Prasad Verma, ‘Madhya Asia avam Bharat: Aitihasik avam Sanskritic Sambandhon ki Gatha’, Itihas Darpan (Vol. XV (2), pp. 27-28
[v] Travels of Fah-Hian and Sung-Yun, Buddhist Pilgrims from China to India (400 AD and 518 AD) translated from Chinese by Samuel Beal (London, 1869), Chapter VIII, p. 26.
[vi] In every ‘country’ (region) through which Huen Tsang passed (Nagar, Gandhara, Udyan, Takshasila) he deplored the fact that the ‘non-Buddhists were very numerous’ … ‘ a few being Buddhists’: Thomas Watters, On Yuan Chwang’s Travels in India (629-645 AD), (London, 1904).
[vii] Olaf Caroe, The Pathans (Karachi reprint, 1988), p.94.
[viii] According to David Price, because of similarity in the letters Re and Va in Persian, this name may possibly have been Vittel, as the name Vitteldas is very common among the Hindus: Mahommedan History …, (London, 1821), Vol. I, p. 454.
[ix] The Rutbils, later uprooted by Yaqub-i- Lais, were from the same ethnic stock as the Bhatti Rajputs: James Tod, Annals and Antiquities of Rajasthan (Delhi, reprint 2002), Vol. I, p. 72. Also see C. V. Vaidya, History of Mediaeval Hindu India, Vol. II, p. 159: “As there was a Brahman dynasty in Kabul, so there was a Kshatriya dynasty in Kandahar.”
[x] E. C. Sachou, tr. Alberuni’s India (Indian Edition, New Delhi, reprint 1981), Vol. II, p. 13.
[xi] Andre Wink, Al Hind (New Delhi, Oxford University Press, reprint 1999), p. 112. “One thing is now proved, that princes of the Hindu faith ruled over all these regions in the first ages of Islamism, and made frequent attempts, for centuries after to reconquer them”: James Tod, Annals and Antiquities of Rajasthan (Delhi, reprint 2002), Vol. II, p. 175 fn.
[xii] “Biladuri informs us that under the Caliphate of Muaviya Abdu-r Rahman son of Samra penetrated to the city of Kabul and obtained possession of it after a month’s siege… The King of Kabul made an appeal to the warriors of India and the Mussalmans were driven out of Kabul”: H. M. Elliot and John Dowson, The History of India As Told by Its Own Historians (Indian Edition, Kitab Mahal), Vol. II, p. 415.
Also see Abdur Rahman, The Last Two Dynasties of the Shahis (Islamabad, 1979) (Delhi reprint 1988), quoting several sources like Tabri, Azraqi and Biladuri, pp. 85-86
[xiii] Sir William Muir, The Caliphate, its Rise and Decline, p. 362.
[xiv] Bosworth, C. E., Sistan under the Arabs, From the Islamic Conquest to the Rise of the Saffarids (651-864 (Rome, 1968), pp. 60, 63.
[xv] H. A. R. Gibbs, The Arab Conquests in Central Asia, (1923) p. 41.
[xvi] This account of the Arab invasion of Zabul is based on the narration of Major David Price in his book Mahommedan History … (London, 1821), Vol. I, Chapter XIII, pp. 454-463. Digitized by Google, it is now available on Internet for free download. Alongside each relevant page/paragraph Price has indicated Khalast-al-Akhbar by Khondamir as his authority. Born in Herat in 1475 CE, Khalasat-al-Akhbar was written by him in 1499-1500. He was one of the greatest historians of his times. He came to India in 1528 and entered the service of Emperor Babar. After his death Khondamir served his son Himayun.
This event is referred, among several others, by H. M. Elliot and John Dowson, The History of India As Told by Its Own Historians (Indian Edition, Kitab Mahal), Vol. II, pp. 416-417; James Tod, Annals and Antiquities of Rajasthan, Vol. II, pp. 174-175, foot notes. André Wink, Al Hind: The Making of the Indo-Islamic World (New Delhi, Oxford University Press, reprint 1999), pp. 122-123 quoting C. E. Bosworth’s Sistan Under the Arabs. From Islamic conquest to the Saffarids (654-864 AD) (Rome, 1968).
[xvii] Edward Gibbon, The Decline and Fall of the Roman Empire, Chapter XIX, pp. 487-88.
[xviii] Chachnama was originally written by Ali ibn Hamid Kufi (originally of Kufa in Syria but subsequently a resident of Uch). It was later translated in Persian. Mirza Kalichbeg Ferdunbeg, Deputy Collector, translated it into English from the Persian translation (Karachi, 1900). It is now available free on Internet. English translation of important extracts available in H. M. Elliot and John Dowson, The History of India As Told by Its Own Historians (Indian Edition, Kitab Mahal), Vol. I.
[xix] A very readable account has become available recently: ECHOES AMONG RUINS: Revisiting the Brahman Dynasty of Ancient Sindh by Vinay Mehta. www.echoesamongruins.com.
[xx] Nuruddin Mohammad Uffi, ‘Jami ul Hikayat’ in H. M. Elliot and John Dowson, The History of India As Told by Its Own Historians (Indian Edition, Kitab Mahal), Vol. II, pp. 176-78. Also Tarikh-i-Ghuzida, Ch, IV, Sec. I.
[xxi] “As we learn from the Chinese pilgrim (Huen Tsang), the king of Kapisha was a Kshatriya or a pure Hindu. During the whole of the tenth century the Kabul valley was held by a dynasty of Brahmans, whose power was not finally extinguished until towards the close of the reign of Mahmud Ghaznavi. Down to this time, therefore, it would appear that a great part of the population of eastern Afghanistan, including the whole of Kabul valley, must have been of Indian descent … The idolaters were soon driven out, and with them the Indian element, which had subsisted for so many centuries in Eastern Ariana, formally disappeared.” Alexander Cunningham, The Ancient Geography of India, The Buddhist Period, p. 14.
[xxii] E. C. Sachou, tr. Alberuni’s India (Indian Edition, New Delhi, reprint 1981), Vol. II, p. 13
[xxiii] Yogendra Mishra, The Hindu Shahis of Afghanistan and the Punjab AD 865- 1026 (Patna, 1972); D.B. Pandey, The Shahis of Afghanistan and the Punjab, Delhi, 1973); Abdur Rahman, The Last Two Dynasties of the Shahis (Islamabad, 1979) (Delhi reprint, 1988); R. T. MOHAN, AFGHANISTAN REVISITED: The Brahmana Hindu Shahis of Afghanistan and the Punjab (c. 840-1026 CE) (Delhi, 2010)
[xxiv] M. A. Stein, English translation of Kalhana’s Rajatarangini (Delhi, reprint 1989), V. 152-155, p.206.
[xxv] Mohammad Ufi, Jami ul Hikayat, in H. M. Elliot and John Dowson, The History of India As Told by Its Own Historians (Indian Edition, Kitab Mahal), Vol. II, p. 173.
[xxvi] Abdur Rahman, The Last Two Dynasties of the Shahis, pp. 110-116 quoting Tarikh-i-Sistan, pp. 255-266. Also Andre Wink, Al Hind , p. 125: “Muslim control of Zamindawar remained imperfect until the end of ninth century, and in Ghazni the Saffarid governor was again expelled by two Indian princes in 890-900 CE.”
[xxvii] M. A. Stein, English translation of Kalhana’s Rajatarangini, V. 232-233.
[xxviii] From D. R. Sahni, ‘Six Inscriptions in the Lahore Museum’ Epigraphia Indica, Vol. xxi, no.44, 1931-32, pp. 298-299.
[xxix] Keilhorn, ‘Khujaraho Stone Inscription of Dhanga’, VS 1011’ Epigraphia Indica, Vol. I, 1892-93, pp. 122-135: verse 43 in English translation, p. 134G.
[xxx] R. T. Mohan, AFGHANISTAN REVISITED, The Brahmana Hindu Shahis of Afghanistan and the Punjab (c. 840-1026 CE) The text of the Hund Slab Inscription of the Time of Jayapaladeva as also other Inscriptions, and description of the coins, quoted here are available in this book.
[xxxi] D. R. Sahni, ‘Six Inscriptions in the Lahore Museum’ Epigraphia Indica, Vol. xxi, no.44, 1931-32, pp. 299.
[xxxii] ‘Mazar-i-Sharif Inscription of the Time of the Shahi Ruler Veka’, Journal of Asian Civilizations, Vol. XXIV, No. 1, July 2001, pp. 81-86. Reproduced in R. T. Mohan, AFGHANISTAN REVISITED … Appendix – A, pp. 162-63.
[xxxiii] Badaoni, Muntakhabu-t-Twarikh, translation by George S. A. Ranking (Patna, 1973 Edition).
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